मन को वश में किये बिना योग मार्ग पर चलना दुष्कर है | भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमदभगवत गीता के छठे अध्याय के छ्तीसवे श्लोक में इसी बात को कहा है ( मन को वश में कैसे करे )
यथा –
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति में मतिः
वश्यात्मना तू यतता श्क्तोअवप्तुमुपायथ
Contents
- 1 असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति में मतिःवश्यात्मना तू यतता श्क्तोअवप्तुमुपायथ
- 2 चंचल ही मन कृष्ण प्रमाथि बलवद दृढमतस्याहं निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम
- 3 जगत को वही जीत सकता है जिसने मन पर विजय पा ली है |
- 4 सृष्टी रचना का मूल है मन
- 5 मन स्तर व अवस्थाये
- 6 मन को वश में करने के उपाय
- 7 भोगो के प्रति वैराग्य भाव
- 8 इन्द्रियाथ्रेशु वेरागय्मनहंकार एव चजन्ममृत्यु जराव्याधि दुःख दोषानुदर्शनम
- 9 भगवत चिंतन
- 10 मन के मत से न चले
- 11 मन लोभी , मन लालची , मन चंचल , मन चोरमन के मते न चलिए , पलक पलक मन और
- 12 प्राणायाम का अभ्यास
- 13 दहय्नते ध्याय्मानाना धातुना ही यथा मलाःतथेंद्रियाना दहय्नते दोषाः प्राणस्य निग्रह्त
- 14 त्राटक अभ्यास
- 15 नाद श्रवण
- 16 मन के कार्यो – विचारों को देखना
इसी तरह जब अर्जुन ने मन को वश में करना दुष्कर कार्य समझा तब क़तर भाव से उसने भगवान श्री कृष्ण से यही कहा की –
चंचल ही मन कृष्ण प्रमाथि बलवद दृढम
तस्याहं निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम
अथार्त है प्रभो ! यह मन बड़ा चंचल , हठीला , दृढ व बलवान है | इसे रोकना में वायु को रोकने की भाति दुष्कर समझता हु |( मन को वश में कैसे करे )
अर्जुन के प्रश्न के उतर में भगवान श्री कृष्ण कहते है की अर्जुन ! सुन , निस्संदेह ही मन को वश में करना बड़ा कठिन कार्य है लेकिन अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसे वश में किया जा सकता है |
भगवान शंकराचार्य भी कहते है की
जगत को वही जीत सकता है जिसने मन पर विजय पा ली है |
मन बड़ा चलायमान है यह मनुष्य को भटकाता है | यह भी तथ्य है की यह मन ही मनुष्य को सांसारिकता से मुक्त करने वाला भी है और सांसारिकता में बाँधने वाला भी है इसीलिए कहा गया है की मन व मनुष्याणा कारणम् बंध मोक्षयो( मन को वश में कैसे करे )
सृष्टी रचना का मूल है मन
मन क्या है ? इसका स्वभाव क्या है ? मन के बारे में इस प्रकार विचार करने पर निष्कर्ष निकलता है की मन सृष्टी रचना का प्रमुख कारण है | यदि मन न हो तो जगत की रचना असंभव है क्युकी जितने भी संकल्प विकल्प उत्पन्न होते है उनका प्रमुख केंद्र मन ही है | ( मन को वश में कैसे करे )
यह मन वस्तुत्त आत्म अनात्म के मध्य एक कड़ी का कार्य करता है | राग द्वेष , विषय – वासना , कामना मन की ही देन है | इसीलिए महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन के समाधिपाद में कहा है की अभ्यास वेरागयाभ्या तन्निरोध | अथार्त अभ्यास और वैराग्य वाली ही बात श्री कृष्ण ने भी अर्जुन से कही है |
अन्न का अतिसूक्ष्म भाग मन है तदपि यह आत्मा का एक यंत्र मात्र ही है जो संसार के अनुभवों को ग्रहण करता है | लेकिन जब मन का निरोध कर दिया जाता है तब यही मन आत्मा के रूप में प्रतिबिंबित होने लगता है सामान्य बोलचाल की भाषा में भी प्राय कह दिया जाता है की जैसा खाए अन्न वैसा बने मन | इससे भी यही सिद्ध होता है की मन अन्नमय है | ( मन को वश में कैसे करे )
अन्न से ही इसकी उत्पति हुयी है | मनुष्य के जितने भी जागतिक कार्य व्यवहार है उन सबका मूल कारण मन है | शरीर में इसका स्थान आत्मा के अति निकट है | आत्मा की चेतनता से ही यह चेतना पाटा है | स्वयं में इसकी कोई चेतना नहीं है | अस्थिरता ही इसका स्वभाव है | कारण की यह सत , रज ओ तम गुणों का मिश्रण है |
मन स्तर व अवस्थाये
मन के 3 स्तर है – चेतन , अवचेतन व अतिचेतन | मन को वश में करना चेतन स्तर पर ही संभव है | कारण की अवचेतन व अतिचेतन अवस्था में अहम का लोप हो जाता है जबकि चेतन अवस्था में मानवीय क्रिया कलाप अहम भाव से ग्रस्त होते है |( मन को वश में कैसे करे )
इसी तरह क्षिप्त्ता , विक्षिप्ता , मूढ़ता , निरुधता व एकार्गता आदि मन की अवस्थाये है | मन के एकाग्र होने पर ही साधना में सफलता मिलती है अथवा किसी भी कार्य में सफलता अर्जित होती है | यह अनुभव की बात है की जब मन किसी कार्य को करने की प्रेरणा दे तब उस कार्य में निश्चय ही सफलता मिलती है |
इसके विपरीत जिस कार्य को करने की प्रेरणा मन न दे और उसी कार्य को जान बुझकर किया जाए तो निश्चय ही विफलता मिलती है | इसमें तनिक भी संदेह नहीं है | मन के एकाग्र होने का सबसे बड़ा लाभ यही है की कार्य या साधना में सफलता मिलती है |
क्षिप्तावस्था में मन भटकने लगता है | मूढावस्था में तमोगुणी विचार उत्पन्न होते है | विक्षिप्तावस्था में मन मूल की और जाने का यत्न करता है | जबकि निरुद्धावस्था में मन पूर्णत शांत हो जाता है और तब आत्मा की अनुभूति होने लगती है | ( मन को वश में कैसे करे )
उस आत्मा भाव में जब मन पूर्ण रूपेण निमग्न हो जाता है तब समाधि अवस्था होती है उस अवस्था में चेतन्य पूर्ण प्रकाशमान हो जाता है | तब मनुष्य को नाना प्रकार की सिद्धिया हस्तगत होने लग जाती है और वह प्रपंच से दूर हो जाता है | यही मनुष्य की ज्ञानावस्था होती है | यही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य , परम धन है | यह सब मन को वश में करने से संभव होता है |
मन को वश में करने के उपाय
मन के चंचल या चलायमान होने के कारणों में प्रमुख है – भय , वासना व अशुचिता | लेकिन नियमित दिनचर्या द्वारा मन को चंचल होने से रोका जा सकता है | इसके लिए प्रमुख है मन को पवित्र बनाना , असद विचारों का त्याग करना , सुचारू सोच का अभ्यास
वैसे भी कहा जाता है की पवित्र मन में ही परमात्मा का वास है | इसका आशय यही है की शुद्ध मन में परमात्मांश अथार्त आत्मा ज्योतिर्मान हो जाती है और मनुष्य की निरथक भाग दोड़ समाप्त हो जाती है | इसीलिए कहा गया है की आध्यात्मिक जीवन का मूल आधार शुचिता है | शुचिता के बिना आध्यात्मिक जीवन हानिप्रद भी हो सकता है |
यहाँ कुछ उपाय दिए जा रहे है जिससे मन को वशीभूत किया जाना संभव है |
भोगो के प्रति वैराग्य भाव
संसार के जितने भी भोग प्रदार्थ है , उनके प्रति यह भाव रखे की सभी प्रदार्थ क्लेशकारी , दूषणयुक्त है | ऐसा भाव रखने से मन सांसारिक पदार्थो के प्रति आसक्त नहीं होगा |
भगवान श्री रिश्ना ने ऐसा ही श्रीमद भगवत गीता के तेरहवे अध्याय के आठवे श्लोक में कहा है –
इन्द्रियाथ्रेशु वेरागय्मनहंकार एव च
जन्ममृत्यु जराव्याधि दुःख दोषानुदर्शनम
अथार्त इहलोक व परलोक के सभी भोगो में वैराग्य , अहंकार का त्याग तथा इस शरीर में जन्म , मरण , वृधावस्था व रोगादि , दुःख – दोष देखने से इनके प्रति वैराग्य भाव जाग्रत होगा , जिससे मन भी निश्चय ही वशीभूत होगा |
भगवत चिंतन
वेदान्त में आत्मा को शुद्ध स्वरूप माना गया है क्युकी आत्मा परमात्मा का ही अंश है और चेतन्य है | वही मानव का वास्तविक स्वरूप है | इस प्रकार आत्म चिंतन करे | मन को परमात्मा की और जाने के लिए प्रेरित करने से भी मन एकाग्र होता है | प्रारम्भ में तो मन बिगड़े घोड़े जैसा रंग दिखता है लेकिन धीरे धीरे वह काबू में हो जाता है
मन के मत से न चले
मन भटकाने वाला है अत इसके कहने में नहीं चलना चाहिए | यह मनुष्य का असवार बनना चाहता है लेकिन यदि मनुष्य स्वयं ही इसका असवार हो जाये तो फिर यह काबू में हो जाता है | मन के बारे में कहा भी गया है की
मन लोभी , मन लालची , मन चंचल , मन चोर
मन के मते न चलिए , पलक पलक मन और
मन पर भूलकर भी विश्वास न करे | इसके आदेश पर न चले बल्कि इसे अपने आदेश में चलाए | तभी यह वश में हो सकेगा |( मन को वश में कैसे करे )
प्राणायाम का अभ्यास
नासिका छिद्रों से आने जाने वाले श्वासों पर ध्यान एकाग्र करने से भी मन स्थिर होता है | सहवास – प्रश्वास की गति का निरोध ही प्राणायाम है | प्राणायाम करने से भी मन एकाग्र होता है | महाराज मनु ने कहा भी है की –
दहय्नते ध्याय्मानाना धातुना ही यथा मलाः
तथेंद्रियाना दहय्नते दोषाः प्राणस्य निग्रह्त
अथार्त जिस पर धातु को अग्नि में तपाने से वह मलरहित हो जाता है वैसे ही प्राणवायु के निग्रह से इन्द्रियों के समस्त दोष नष्ट हो जाते है |
त्राटक अभ्यास
मन को वशीभूत करने के लिए त्राटक क्रिया करना भी लाभप्रद है | त्राटक दो तरह का होता है – बाह्य त्राटक व अंत त्राटक | बाह्य त्राटक मर दृष्टि को किसी भी वस्तु या पदार्थ पर टिकाया जाता है जबकि अंत त्राटक में नासिकाग्र अथार्त भोहो के ठीक मध्य में ध्यान केंद्रित किया जाता है |
इस प्रकार त्राटक करने से भी मन वश में हो जाता है | ऐसा करने से जब मन शांत हो जाता है तो ज्योति के दर्शन होने लगता है |
नाद श्रवण
कानो में ऊँगली डालने से एक प्रकार का नाद उत्पन्न होता है | प्रारम्भ में भ्रमर की गुंजार या पक्षियों के चहचहाने जैसा शब्द सुनाई देता है | धीरे धीरे अभ्यास होने पर घुंघरू , शंख , घंटा , ताल , बांसुरी , भेरी , मृदुंग , नफ़ीरी , सिह गर्जना जैसे शब्द सुनाई देने लगते है |
इस तरह कुल दस प्रकार क्र शब्द सुनाई देने के बाद ॐ या प्रणव सुनाई देने लगता है | इसी को संतजन नाद श्रवण कहते है | इस नाद श्रवण से भी मन एकाग्र होता है |
मन के कार्यो – विचारों को देखना
मन जो कुछ करता है या मन में जो भी विचार उत्पन्न होते है उन्हें दृष्टा भाव से देखने रहने से भी मन बड़ी जल्दी वश में हो जाता ही | यह भावना रखनी चाहिए की जो कुछ कर रहा है या सोच रहा है वह मन कर रहा है , मन ही सोच रहा है |
में आत्मा हु और आत्मा केवल दृष्टा है , भोक्ता नहीं है | भोक्ता तो मन है | इस प्रकार का अभ्यास करने से भी मन को एकाग्र किया जा सकता है | फिर मन मनुष्य के कहे अनुसार चलने लगेगा | बन्दर जैसी उसकी उछल कूद बंद हो जाएगी |
इस तरह दिए गए उपायों द्वारा मन को वश में करने का अभ्यास करना चाहिए | जब अब्यास परिपक्व हो जाएगा तब मन ध्यान में लगने लगेगा |
Mstnha bilkul zero
Katai zher